Nitish Kumar: विपक्षी एकता के लिए नीतीश कुमार लगातार प्रयास में हैं। एक ही दिन (सोमवार को) दो राज्यों के दो शहरों में उन्होंने दो नेताओं से मुलाकात की। बंगाल के कोलकाता में सीएम ममता बनर्जी से मिले तो यूपी के लखनऊ में पूर्व सीएम अखिलेश यादव से। आश्चर्यजनक ढंग से ममता ईगो छोड़ कर विपक्षी एकता के लिए तैयार भी हो गई हैं। उन्हें जेपी मूवमेंट की गंध भी मिल रही है, जिसने वर्षों से सत्ता पर काबिज कांग्रेस का सफाया कर दिया था। क्या सच में बन पाएगी विपक्षी एकता और क्या विपक्ष कर पाएगा सत्ता परिवर्तन?
पटना: विपक्षी एकता के प्रयास में बंगाल पहुंचे नीतीश कुमार की ममता बनर्जी से मुलाकात पहली नजर में सफल दिखाई देती है। ममता का इस बात के लिए बेहिचक तैयार हो जाना कि बीजेपी को भगाने के लिए हम सबके साथ हैं, नीतीश की सबसे बड़ी कामयाबी कही जाएगी। मुलाकात की अच्छी बात यह भी रही कि ममता ने 1974 के जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को भी याद किया। ममता ने याद भी दिलाया कि व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन की शुरुआत बिहार से हुई थी। जयप्रकाश आंदोलन की तब बड़ी उपलब्धि यह रही थी कि आजादी के बाद से ही केंद्र की सत्ता पर काबिज कांग्रेस का सफाया हो गया था। यानी व्यवस्था तो नहीं बदली, लेकिन सत्ता जरूर पलट गई थी। ममता ने ईगो छोड़ने की बात कह कर लोगों को भरोसा दिलाने की कोशिश किया कि उनको लेकर जो आशंकाएं हैं, वे अब नहीं रहनी चाहिए।
क्या विपक्षी एकजुटता हकीकत बनेगी या सिर्फ हवाबाजी ?
नीतीश कुमार के मिशन, विजन और थीम पर ममता की सहमति जरूर मिल गई, पर संदेह और सवाल की गुंजाइश तो बनी ही रहती है। ममता ने विपक्षी एकता की पहली बैठक पटना में आयोजित करने की सलाह भी दी। नीतीश के साथ बिहार के डेप्युटी सीएम तेजस्वी यादव भी मौजूद रहे। चार्टर्ड प्लेन से कोलकाता पहुंचे नीतीश सोमवार को ही लखनऊ में अखिलेश यादव से भी मिले। विपक्षी एकता के लिए नीतीश कुमार का अभी तक का प्रयास सही दिशा में जाता दिख रहा है। सिद्धांततः सभी विपक्षी दल बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए तैयार हैं, लेकिन सबको साथ ला पाना ही कड़ी चुनौती है। इसलिए कि इनमें ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां हैं और सबका अपने-अपने राज्यों में वर्चस्व है। जेपी मूवमेंट में तो कई दलों ने अपनी पहचान छोड़ कर जनता पार्टी बनाई थी। इस बार सभी अपनी पहचान पर चुनाव में उतरेंगे।
जेपी मूवमेंट की चर्चा, क्या सभी अपनी पहचान खो देंगे?
सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि ममता ने जेपी आंदोलन के प्रसंग का उल्लेख कर दो बातों की ओर अघोषित तौर पर इशारा कर दिया है। अव्वल तो कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए जेपी मूवमेंट हुआ था। आज उसी कांग्रेस में जान फूंकने के लिए विपक्षी एकता की मुहिम चल रही है। दूसरा यह कि 1977 में जेपी मूवमेंट की वजह से सभी दलों ने अपनी आइडेंटी छोड़ एक होकर सत्ता परिवर्तन तो कर दिया था, लेकिन अहम् के टकराव ने 1980 आते-आते उस एकता में पलीता लगा दिया। बड़े आंदोलन की कोख से पैदा होने वाली जनता पार्टी की सरकार अपने कार्यकाल की आधी अवधि भी पूरी नहीं कर पाई। फिर से कांग्रेस की सत्ता में पुनर्वापसी हो गई थी।
AAP की अपनी डफली, अपना राग- कैसे मिलेगा साथ?
ममता बनर्जी हों या अखिलेश यादव, सबकी अपने-अपने राज्यों में अलग पहचान है। कोई भी अपनी पहचान गंवाने के लिए शायद ही तैयार हो। इसलिए बीजेपी के खिलाफ एक साथ आने की सैद्धांतिक सहमति बनानी कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात यह है कि टिकट बंटवारे में किसे कितनी सीटें दी जायें या राज्यों में कौन अपनी पहचान मिटाने या वर्चस्व खत्म करने को तैयार होगा। ममता बनर्जी जिस सीपीएम और कांग्रेस की मुखालफत कर बंगाल की सत्ता पर काबिज हुईं, क्या उन दलों के साथ वह उनके उम्मीदवारों को जिताने के लिए चुनाव प्रचार करेंगी। क्या वाम दल मान जाएंगे कि ममता की मर्जी से उनके लोगों को टिकट मिले।
कहना आसान, करना कठिन- कौन छोड़ेगा अपना वर्चस्व?
कहना आसान है, लेकिन करना कठिन। यानी सिद्धांत और व्यवहार में जमीन-आसामान का अंतर होता है। अभी ममता विपक्षी एकता के लिए ईगो छोड़ने को तैयार हो गई हैं। सैद्धांतिक रूप से विपक्षी एकता की उनकी सहमति भी मिल चुकी। लेकिन आगे की डगर बहुत मुश्किल है। सभी दल अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। यानी सीटों के समझौते पर मामला फंसेगा। सीपीएम तो 1977 में भी जेपी मूवमेंट में शामिल नहीं थी। उसकी तो बंगाल में तकरीबन साढ़े तीन दशक तक सरकार रही है। उसका अब भी जनाधार बंगाल में है। सीताराम येचुरी ने बीजेपी को हटाने के नाम पर नीतीश कुमार से भले बातचीत की, लेकिन ममता के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने की सीपीएम में सहमति बन पाएगी, यह थोड़ा मुश्किल है।
सभी दलों के साथ आने में नीतीश कुमार को भी संदेह
नीतीश कुमार को भी सभी विपक्षी दलों को साथ ला पाना आसान नहीं लगता। इसलिए वे बार-बार कह रहे हैं कि अधिक से अधिक लोगों को साथ लाने की उनकी कोशिश है। यह कोशिश तो उसी वक्त भंग हो गई, जब नीतीश से अरविंद केजरीवाल की मुलाकात के हफ्ते भर के अंदर आम आदमी पार्टी के एक महासचिव ने साफ कर दिया कि उनकी पार्टी किसी के साथ गठबंधन नहीं करेगी। अकेले चुनाव मैदान में उतरेगी। पीएम या सीएम फेस पहले से घोषित करने की उनकी पार्टी में परंपरा नहीं रही है। इसलिए अभी पीएम फेस की चर्चा आम आदमी पार्टी नहीं करेगी। इससे साफ है कि जो दल जहां मजबूत है, वह अपने वर्चस्व से कोई समझौता शायद ही करे।
दागदार विपक्षी चेहरों पर कितना भरोसा कर पाएगी जनता?
जयप्रकाश नारायण का नाम बेवजह विपक्षी गंठजोड़ में घसीटा जा रहा है। कई लोग तो नीतीश कुमार को उसी रूप में देखने भी लगे हैं। यह देख-सुन कर थोड़ा आश्चर्य भी होता है। सत्ता के लिए नीतीश कुमार जिस तरह रोटी की तरह दल या गठबंधन उलटते-पलटते रहे हैं, वैसे में उनमें जयप्रकाश नारायण की छवि देखना जेपी का अपमान ही कहा जाएगा। वैसे नीतीश कुमार के लिए जेपी और लोहिया का अपमान कोई नई बात नहीं है। दोनों ने जाति का विरोध किया। जेपी ने जो जाति तोड़ो, जनेऊ तोड़ो का नारा दिया और नीतीश सरकार जाति गणना करा रही है। लोगों से उनकी जाति पूछी जा रही है। जेपी के दोलन का मुद्दा भ्रष्टाचार भी था। विपक्षी एकता के लिए जितने नेता बेचैन हैं, उनमें नीतीश को छोड़ तकरीबन सभी दागदार हैं। व्यक्तिगत तौर पर ममता बनर्जी बची हुई हैं, लेकिन उनके परिजन और पार्टी के नेता भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं। लालू परिवार, सोनिया गांधी का परिवार, केसीआर जैसे कई नेताओं के परिवार विपक्षी एकता के लिए बेचैन हैं। वे कोर्ट से भी राहत पाने में नाकाम रहे हैं। सब कुछ जनता के सामने है। क्या ऐसे चेहरों पर जनता भरोसा कर पाएगी?
रिपोर्ट-ओमप्रकाश अश्क
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